Tuesday, September 20, 2011
क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!
तुम देकर मदिरा के प्याले, मेरा मन बहला देती हो,
मेरे सुमनों की गंध कहीं, यह वायु उड़ा ले जाती है;
तब मानव की चेतनता का, आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कह तो सकते हैं, कहकर ही, कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का, अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये, अब तो हम अपने जीवन भर, उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से, व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे, ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी, जब इस लंबे-चौड़े जग का, अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा, संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गा गा, जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर, ‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन, करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का, अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का, उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन, निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे, गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे, जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी, ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा, पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की, शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का, श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई, हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!