Tuesday, September 20, 2011

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी


क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी ?

मैं दुखी जब-जब हुआ, संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा, रीति दोनो ने निभाई,

किंतु इस आभार का अब हो उठा है बोझ भारी;

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूं ?

एक भी उच्छवास मेरा, हो सका किस दिन तुम्हारा ?
उस नयन से बह सकी कब, इस नयन की अश्रु-धारा ?

सत्य को मूंदे रहेगी, शब्द की कब तक पिटारी ?

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूं ?

कौन है जो दूसरे को, दुःख अपना दे सकेगा ?
कौन है जो दूसरे से, दुःख उसका ले सकेगा ?

क्यों हमारे बीच धोखे, का रहे व्यापार जारी ?

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूं ?

क्यों न हम लें मान, हम हैं, चल रहे ऎसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला, दुःख नही बांटते परस्पर,

दूसरों की वेदना में, वेदना जो है दिखाता,
बेदना से मुक्ति का निज, हर्ष केवल वह छिपाता,

तुम दुःखी हो तो सुखी मै, विश्व का अभिशाप भारी !

क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूं ?

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